जिदंगी की किताब

जिदंगी की किताब

 एक मुझमें न जाने कितने मैं हैं

एक तुझमें न जाने कितने मैं हैं


मेरा कौन सा मैं तेरे किस मैं से

कैसे मिलता है गले या

कैसे उलझ सा जाता है

इसका हिसाब लिखा है

रिश्तों के पन्नों पे …


कुछ पन्नों पे सिलन है अश्क़ों की

कुछ में लिपटी महक मुहब्बत की

तुम्हारे उन रजनीगंधा सी ….


बार बार के शिकवों से मुड़े हैं

कुछ पन्नों के कोने 

कुछ पे दिखते लफ़्ज़ धुँधले

यादें बिसरे लमहों की ….


कुछ पन्नों पे बिखरी 

पशेमानी की स्याही है

कुछ को पलटो तो खनकती 

गूँज हँसी ठिठोली की 


कुछ पे लिखे हैं ख़त

 मैंने वो तेरे इंतज़ार में

कुछ पे फ़ेहरिस्त है तेरे

वादों की ,मेरी ताकीदों की


महफ़ूज़ हैं पन्नों में कुछ

ख़्वाब मुकम्मल भी

कुछ ख़्वाहिशें अधूरी सी….


कुछ पन्नों पे दर्ज है

पता उन मंज़िलों का

जिन तक पहुँचने के रास्ते

कभी मिले नहीं या भटक गये

कुछ पे ज़िक्र है उन सफ़र का

जो ख़ुद हमारी मंज़िल बन गये


इन्हीं पन्नों मे कहीं छिपी हैं 

मुख़्तसर मुलाक़ातें रूह की

जिनके दरमियाँ न जाने कितने

पन्नों से झाँकती कसक है

तन्हाई मे लिपटी जुदाई की


कुछ पन्नों पे लिखे सवाल

ख़ामोश तकते हैं रास्ता

तेरे अधूरे जवाबों के 

मुकम्मल होने का ….


मसरूफ लमहों की आड़ में

हम कितने बेपरवाह हो गये

छुट गये कितने अफसाने

कुछ पन्ने कोरें ही रह गए


आअो इन तमाम पन्नों को समेट 

रख देते हैं यादों की किताब में

कुछ रेशमी, कुछ खुरदरी सी

 जिल्द चढ़ा देते हैं इसपे

हम ‘ज़िंदगी ‘ के नाम की

फ़ुरसत की चाँदनी में 

तजुरबे के चश्मे पहन

बाँचेंगे ज़िंदगी की इस 

किताब को एक दिन

मैं और तुम ….

शालिनी सिंह