तकलीफ़ 

तुम साथ न चलो मेरी राह पे
इस बात का शिकवा नहीं है मुझे 

पर रूठ जाते हो जब मेरे सफर से 

तो कदमों को तकलीफ़ होती है

तुम न उड़ो मेरे आसमां में

इस बात का शिकवा नहीं है मुझे

पर रूठ जाते हो जब मेरी परवाज़ से

तो हौसलों को तकलीफ़ होती है

तुम न देखो ख़्वाब मेरे

इस बात का शिकवा नहीं है मुझे

पर रूठ जाते हो जब मेरी नज़रों से

तो नींद को तकलीफ़ होती है

तुम न पढ़ो नग़मे मेरे

इस बात का शिकवा नहीं है मुझे

पर रूठ जाते हो जब मेरे लफजो से

तो खयाल को तकलीफ़ होती है

तुम न करो महुबबत मुझसे

इस बात का शिकवा नहीं है मुझे

पर रूठ जाते हो जब जज़्बातों से

तो रिश्ते को तकलीफ़ होती है

ज़हरीली हवा

इंसान सी औलाद पा कर
पशेमान है क़ुदरत का आँचल 

हैरान है इस नादाँ की शैतानी पे

नाराज़ है इस कमज़र्फ की मनमानी पे

जिस हवा नें साँसें बख़्शी इसे

उस में घोल रहा रोज जहर नये

जिस माँ की गोद में पल बड़ा हुआ

उसके क़त्ल की करता रोज साज़िश नयी

माँ अफ़सोस के आँसू तब रोती है

आँचल में अपने सिर्फ़ जहर जब देखती है

इक इंसान की नादानी की सजा

मजबूर माँ तमाम मासूमों को देती है

तीन बंदर

अच्छा है बुरा न कहना
पर बहुत बुरा है 

बुरे को बुरा न कहना

अच्छा है बुरा न सुनना

पर बहुत बुरा है

बुरे मे लिपटा सच न सुनना 

अच्छा है बुरा न देखना

पर बहुत बुरा है

बुरे को नंजरअंदाज करना

अच्छा है महात्मा के वचन दोहराना

पर बहुत बुरा है 

किसी का बंदर बन रह जाना

अकसर 

अकसर देखा है मैंने 
उन्हे ख़ुद से जंग लड़ते हुये

शांति का परचम थामे जो

मौन खड़े मुस्करा रहे थे 

अकसर देखा है मैंने

उन्हें ज़िंदा लाश बनते हुये

मुद्ददत से काँधो पे जो

रिश्तों के जनाज़े उठा रहे थे

अकसर देखा है मैंने

उन्हें शिगाफ होते हुये

औरों की बताई जिंदगी जो

एक उमर से जीते जा रहे थे

अकसर देखा है मैंने 

उन्हें बेसबब भटकते हुये

भीड़ का हिस्सा बन जो

मँजिल तलाशे जा रहे थे

अकसर देखा है मैंने 

उन्हें ख़ंजर की धार बनाते

बातों की चाशनी में जो

मुझे डुबाये जा रहे थे

राष्ट्रीय गान

सच कहते हो तुम
बिलकुल सच

राष्ट्रीय गान पे खड़े होने से 

देशभक्त नहीं बन सकते

तुम तो हरगिज़ नहीं

सच कहते हो तुम

बिलकुल सच

देशभक्ति दिल में होती है

बाहर से थोपी नहीं जा सकती

तुम पे तो हरगिज़ नहीं

सच यह भी है

बिलकुल सच

दिल मे देशभक्ती होती अगर

जुबाँ पे तुम्हारे इंकार न होता

बरबस खड़े होते राष्ट्रीय गान पे

थोपे जाने का मन मे मलाल न होता

सच यह भी है

दुखद सच

न्यायालय देता है आदेश

नहीं आवश्यक तुम्हारा खड़ा होना

जाओ कह दो सीमा पे तैनात उस फ़ौजी से भी 

नहीं आवश्यक तिरंगे में लिपट घर लौटना

# करवाचौथ

जानती हूँ कि व्रत से तुम्हारी आयु नहीं बढ़ेगी 
अच्छा लगता है तुम्हारे लम्बे साथ की दुआ करना

चाँद का इंतजार बेक़रार करता है मगर

अच्छा लगता है संग तुम्हारे आँसमा तकना

अच्छा लगता है चाँद के बाद तुम्हें देखना

छलनी के पीछे तुम्हारा यूँ मुस्करा के मुझे छेड़ना 

मेरे अर्पित जल से चाँद को कोई सरोकार नहीं

अच्छा लगता है तुम्हारे हाथ दो घूँट पीना

अच्छा लगता है तुम्हारा खिलाया इक कौर

मेरी भूख प्यास की तुम्हें यूँ परवाह होना

साज सरिंगार के बिना भी पसन्द हूँ मैं तुम्हें

अच्छा लगता है तुम्हारे लिये सजना

अच्छा लगता है फिर तुम्हारी दुल्हन बनना

तुम्हारा मुझे यूँ अपना चाँद कहना 

जानती हूँ कि व्रत से तुम्हारी आयु नहीं बढ़ेगी 

अच्छा लगता है तुम्हारे लम्बे साथ की दुआ करना

-मेजर (डा) शालिनी सिंह

जीत रावण की

फिर जल जायेगा पुतला आज 
रावण भीतर पर बच जायेगा

चोला पहन राम नाम का

फिर सीता कोई हर जायेगा

रावण माना अभिमानी था

फिर भी संयमी ज्ञानी था

हर ले गया सीता को पर

शील पे नज़र न डाली थी

आज घर घर में दानव हैं 

न राम हैं ये न ही रावण हैं

अपनी बेटियों को ही लूट रहे

इंसान अब ऐसा दुष्ट प्राणी हैं

हर साल पुतला जलता जब

रावण अट्टहास है करता तब

राम एक ही बार जीता मुझसे

मेरी विजय रोज होती उस पर

-मेजर (डा) शालिनी सिंह

ज़िंदगी की किताब

एक मुझमें न जाने कितने मैं हैं

एक तुझमें न जाने कितने मैं हैं
मेरा कौन सा मैं तेरे किस मैं से

कैसे मिलता है गले या

कैसे उलझ सा जाता है

इसका हिसाब लिखा है

रिश्तों के पन्नों पे …

कुछ पन्नों पे सिलन है अश्क़ों की

कुछ में लिपटी महक मुहब्बत की

तुम्हारे उन रजनीगंधा सी ….

बार बार के शिकवों से मुड़े हैं

कुछ पन्नों के कोने 

कुछ पे दिखते लफ़्ज़ धुँधले

यादें बिसरे लमहों की ….

कुछ पन्नों पे बिखरी 

पशेमानी की स्याही है

कुछ को पलटो तो खनकती 

गूँज हँसी ठिठोली की 

कुछ पे लिखे हैं ख़त

 मैंने वो तेरे इंतज़ार में

कुछ पे फ़ेहरिस्त है तेरे

वादों की ,मेरी ताकीदों की

महफ़ूज़ हैं पन्नों में कुछ

ख़्वाब मुकम्मल भी

कुछ ख़्वाहिशें अधूरी सी….

कुछ पन्नों पे दर्ज है

पता उन मंज़िलों का

जिन तक पहुँचने के रास्ते

कभी मिले नहीं या भटक गये

कुछ पे ज़िक्र है उन सफ़र का

जो ख़ुद हमारी मंज़िल बन गये

इन्हीं पन्नों मे कहीं छिपी हैं 

मुख़्तसर मुलाक़ातें रूह की

जिनके दरमियाँ न जाने कितने

पन्नों से झाँकती कसक है

तन्हाई मे लिपटी जुदाई की

कुछ पन्नों पे लिखे सवाल

ख़ामोश तकते हैं रास्ता

तेरे अधूरे जवाबों के 

मुकम्मल होने का ….

मसरूफ लमहों की आड़ में

हम कितने बेपरवाह हो गये

छुट गये कितने अफसाने

कुछ पन्ने कोरें ही रह गए

आअो इन तमाम पन्नों को समेट 

रख देते हैं यादों की किताब में

कुछ रेशमी, कुछ खुरदरी सी

 जिल्द चढ़ा देते हैं इसपे

हम ‘ज़िंदगी ‘ के नाम की

फ़ुरसत की चाँदनी में 

तजुरबे के चश्मे पहन

बाँचेंगे ज़िंदगी की इस 

किताब को एक दिन

मैं और तुम ….

मेजर (डा) शालिनी सिंह

इक लहर

इक लहर सी मैं
तुमहारे खारेपन से घबराकर

छिटक जाती हूँ 

पत्थरीले किनारों की ओर

बार बार

हर बार

इक सागर से तुम

खींच लेते हो वापस मुझे

पुरानी सी कशिश से

अपनी आग़ोश में

बार बार

हर बार

भूल खारापन तुम्हारा

इक नयी प्यास लिये

इक नयी आस संजोये

लौट आती हूँ तुम में

बार बार

हर बार

छोड़ आती हूँ किनारों पे 

यादों के मोती कभी

शिकवों का कचरा कभी

बन जाती हूँ फिर तुम्हारी 

बार बार 

हर बार

-मेजर(डा) शालिनी सिंह